अभी महीना भर पहले अपने साले को शमशान घाट ले जाने के लिए चार घंटे की देर के बाद जब तक एम्बुलेंस आई, तब तक सारा परिवार रो -रो कर थक गया था। ऊपर से एम्बुलेंस वाले ने पांच हज़ार एक्स्ट्रा ले लिए। अपने प्रियजन की लाश को इस बेदर्दी से जाते हुए मैंने कभी नहीं देखा था।  फिर दो हफ्ते पहले बड़े भाई भी ग्वालियर में चल बसे।  भाभी और बच्चों से मिलने के लिए जा न सका क्योंकि लॉकडाउन का भूत सर पे खड़ा है। पिछले चौदह महीनों में न जाने कितने सगे -सम्बन्धी, मित्र गण  और साथी, तथा उनके परिवार के सदस्य इस कोरोना के प्रभाव से सिधार गए।  उनके आखिरी दर्शनों को ऑंखें तरस गयीं।  उन प्रियजनों को गले लगा कर रोने और आंसू बहाने का मौका तक नहीं मिला।  एक तरह से मेरे लिए तो उनकी तेहरवीं अभी भी बाकी  है? फिर यह दौर, जिसमें दो महीने में कहर ढा दिया ।  साथियों को कोरोना के लक्षण आते ही दवाई नहीं मिल रही थी।  एक सम्बन्धी ने अपनी माँ के लिए अस्पताल का बेड  खोजने की जिम्मेदारी दे दी तो पसीने निकल आये।  उसकी माँ बिन अस्पताल गए ही सिधार गयीं।  मेरी बिटिया के दोस्त के पिताजी को ICU में भर्ती होना था, न हो सके।  ऑक्सीजन के सिलिंडर को पाने की होड़ तो दूर-दराज़ तक दिखाई देने लगी। व्हाट्सएप्प और फेसबुक खोलने पर डर ही लगने लगा।  ज़रूर कोई दुखद समाचार ही मिलेंगे।  पर यदि किसी अपने ने अस्पताल, एम्बुलेंस, बेड, ICU  या ऑक्सीजन की मांग कर दी तो मुँह छिपाना पड़ने लगा।  सुनने में आया कि कुछ लोग दिल्ली से रोहतक या मथुरा के अस्पतालों में अपने कोरोना से ग्रस्त प्रियजनों को भर्ती करवाने के लिए रातों रात रवाना  हो गए।  कौतुहल  भी हुआ और आश्चर्य भी!  क्या देश की राजधानी दिल्ली में अब इलाज की कोई जगह नहीं बची है? पिछले साल कोरोना के लॉकडाउन में लाखों मज़दूर बीबी-बच्चों सहित बड़े शहरों को छोड़ कर गाँव भाग गए थे। उनकी वह फोटो अभी आँखों से हटी भी न थी कि इस दूसरी लहर ने धावा बोल दिया। लॉकडाउन होते ही हज़ारों परिवारों में भुखमरी के हालात पैदा होने लगे। घरेलु कामगारों और बाइयों का काम भी छूट गया, और तनख्वाह भी नहीं मिली। रोज़मर्रा की कमाई से पेट भरने वाले यह परिवार किस तकलीफ में होंगे ? पिछले साल भी सरकारों ने इनको कोई मदद  नहीं दी, इस साल भी मुमकिन नहीं लगता है। तो इनके लिए भोजन - पानी की व्यवस्था जमाना, और वह भी लॉकडाउन में, आसान नहीं बन पड़ा है।  ऐसा क्यों हो रहा है? इनके लिए सरकारों ने अब तक कोई व्यवस्था क्यों नहीं की है ? इन्हें समाज से साधन जुटाने में झिझक भी आती है, और पता नहीं अपने पड़ोसी क्या सोचते होंगे? फिर गंगा मैया में लाशें बहती दिखने लगीं। जिसने उनकी फोटो भेजी उस पर उत्तर प्रदेश की पुलिस ने डंडे बरसाए। कोरोना से मरने वालों की संख्या इतनी कम दिखने वाले सरकारी आंकड़े भी इन बहती और फेकी - दफनाई हुई लाशों के सामने लड़खड़ाने लगे।  सही  गिनती बताने वाले सॉशल मीडिया के लोगों पर कानूनी कार्यवाही होने लगी। सरकारी ऐलान के आलावा बोलने-लिखने वालों के खिलाफ देश और राज्य की सरकारें मुकदमे ठोकने  लगीं।  देश के बाहर टीवी और अख़बारों की ख़बरें भी जब देश की बिगड़ी स्थिति को बताने लगी तो उन मीडिया पर भी सरकार ने आरोप लगाए । जब वैक्सीन लगने की घोषणा हुई तो एक उम्मीद जगी की कोरोना के खिलाफ की लड़ाई हम जीत जायेंगे।  पहले ज्यादा उम्र वालों का नंबर आया फिर 45 से ऊपर की उम्र का।  बड़े शहरों में वैक्सीन लगने लगीं।  मैंने भी लगवा ली पहली जैब।  ऐसी सुकून की भावना जागी।  शुरू में बोला  था की 28 दिनों बाद दूसरी जैब  लगवा लेना, पर तब खबर आयी की वैक्सीन तो ख़त्म हो गयी? छह हफ्ते बाद बड़ी मुश्किल से दूसरा जैब  लगा और दिल खुश हो गया। ऐसा लगा की अब हम खुले-आम कहीं भी घूम फिर सकते हैं। पर साथियों और बच्चों ने टोका और घर में रहने की हिदायत दे दी। और कब तक बन्द रहेंगे इस घर की चारदीवारी में? सबको वैक्सीन क्यों नहीं लग जाता? पर वैक्सीन तो हैं ही नहीं। अपने देश में सबके लिए वैक्सीन लगने में एक-दो साल लग सकते हैं? ऐसा क्यों? भारत तो विश्व भर को वैक्सीन दे रहा था? इतनी सी भी प्लानिंग क्यों नहीं कर पा रही है सरकार ? अब इन तमाम अनुभवों के बाद भी आप मुझे पॉजिटिव रहने की राय दे रहें हैं? मैं अपनों के जाने पर रोऊँ भी नहीं? अपने प्रियजनों को दुःख बाटने के लिए गले न लगा पाने की खीज और बेबसी को भी न कहूं? पड़ोसियों और साथियों को मदद न कर पाने के बावजूद झल्लाऊ भी नहीं? और कब तक तमाम भूखे परिवारों की दशा पर क्रोध भी न जताऊँ ? क्या अपनी कमजोरी और बेबसी को महसूस करना बंद कर दूँ ? पैसे देकर भी जान बचने की दवाई न दिला  पाने की बेबसी को भी अनदेखा कर दूँ? सरकार  के निकम्मे ढंग से काम करने पर भी कुछ न कर पाने की बेबसी ? गुस्सा दिखाने के बजाये पॉजिटिव सोंचूं ? एक ज़मान था जब बॉलीवुड का सिनेमा रोज़मर्रा की तकलीफों से भागने का सहारा  बनती थीं।  हीरो हमेशा पॉजिटिव सोचता था, क्यों? क्योंकि उसे  पता था कि फिल्म का डायरेक्टर उसे मरने नहीं देगा, अंत में उसकी ही जीत होगी।  आप मुझे ऐसा पॉजिटिव सोचने की सलाह दे रहे हो? मेरी फिल्म के डायरेक्टर बनने की जिम्मेदारी ले रहे हो क्या? मैं अपने गम और दुःख को महसूस कर के रोना चाहता हूँ। मैं अपने प्रियजनों को गले न लगा पाने की बेबसी महसूस करना चाहता हूँ। मैं अपने साथी की माँ  को अस्पताल न दिलवा पाने की बेबसी भी सहना चाहता हूँ।  इतनी उम्र होने पर घूस तो मैंने कई बार दी, पर लाश को जलाने के लिए  कभी नहीं, इस मायूसी को भी छू कर महसूस करना चाहता हूँ। मेरी बेबसी भी मेरी तरह बेबाक है, खुल कर झांकती और बोलती है।  मैं अपनी तमाम भवनाओं के साथ जीना चाहता हूँ। मुझे इन्हें झुठलाने वाली पाजिटिविटी के बीच नहीं छिपाना है। यह सब मिलकर मुझे इंसान बनाती हैं। मैं सिद्धार्थ तो पैदा न हुआ, पर बुद्ध भी नहीं बन पाऊँगा। अपनी बेबसी के बेबाक रंग में कुछ दिन और बिताऊंगा। राजेश टंडन मई 26 , 2021

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