बात पुरानी है। पचास वर्ष पहले उत्तर बंगाल में नक्सलबाड़ी से शुरू हुई दास्तान. भूमिहीन किसानो के शोषण से तंग आये लोगो ने आंदोलन किया, पर जवाब में लाठियां और गोलियां चलीं। कलकत्ता और दिल्ली के पढ़े-लिखे मध्यम वर्ग के स्टूडेंट्स ने वहाँ जा कर उनके संघर्ष को साथ दिया। बांग्लादेश की विजय के तुरंत बाद दिल्ली की सरकार ने इन नक्सालिओं को खत्म करने के लिए operation steeplechase चलाया जिसके बारे में कोई विशेष जानकारी आज भी उपलब्ध नहीं है।

आगे 1974 में पहले जॉर्ज फ़्रेनांडेस के नेतृत्व में रेल स्ट्राइक हुई और फिर जय प्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति का आवाहन.  देश के अनेक भागों से स्टूडेंट्स ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया और असमानता व अन्याय के विरोध में आवाज़ उठाई। इमरजेंसी लगी जून 1975 में और तमाम स्टूडेंट्स भी जेल में बंद हुए. उनको लाठी भी लगी।

उसी आंदोलन की उपज है नितीश कुमार, लालू यादव, मुलायम सिंह, सुशिल मोदी और अरुण जेटली. देश के अनेक भागों में स्टूडेंट्स के आंदोलन से जुड़े लोगों से ही हमारे कई राजनितिक नेता भी निकले।

इमरजेंसी हटने के बाद समाज में जागरूकता फैलाने की सोंच से कई आंदोलनकारियों ने स्वैच्छिक प्रयासों की शुरुआत करी और पिछले चालीस वर्षों से सक्रिय रहे. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की सोंच से पैदा हुए ऐसे तमाम प्रयास देश के कई इलाकों में आदिवासी, ग्रामीण और शहरी गरीबों के हितों को पूरा करने में जुटे हैं।

1970 के दशक में सरकार का रवैया हर विरोध और आवाज़ को दबाने का ही रहा था। विरोध की आशंका पर ही झट से कर्फू लगा दिया जाता था. सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर टिप्पड़ी करने के लिए इकठ्ठा होना पुलिस कार्यवाही का शिकार बनता था। पुलिस का रवैय्या अपने ही नागरिकों से  बर्बरता के साथ पेश आता था।

उस समय भी जनता द्वारा चुनी हुई सरकार के ऐसे तानाशाही हथकंडे थे. स्वतंत्र और भिन्न सोंच रखने वालों का अपमान होता था और उन्हें सरकारी पदों से नवाजा नहीं जाता था. सरकार माँई-बाप की मनोदशा आम जनता के खून में भर दी गयी थी।

इमरजेंसी के बाद फिर चुनाव हुए, जनता सरकार बनी भी और ढह भी गयी।

हम सब यह मान बैठे कि देश में लोकतंत्र बहाल हो गया. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र जहाँ सरकारें लोगो द्वारा चुनी जाती हैं।

फिर 1980 के दशक में सिक्ख समुदाय के विरोध में पुलिस का रवैय्या वैसा ही दिखा. जब 1984 में सिक्खों के खिलाफ दंगे हुए तो पुलिस मूक दर्शक की तरह देखती रही. इस बार समाज के अन्दर से ही एक तबके ने समाज के दुसरे तबके पर हिंसा की, और सरकारी कानून व्यवस्था ने उसे करने दी. सरकारी तंत्र और security एजेंसीज का तानाशाही स्वरुप दीखता चला।

उस ज़माने में भी दिल्ली में शांति मार्च करने वालों के बीच इस तानाशाही तंत्र के उकसाने से उपद्रव कराया जाता था। आम भाषा में हम उन्हें ‘असामाजिक तत्त्व’ कह लेते हैं। शांति-पूर्ण ढंग से विरोध जताना किसी भी सत्ता को घबरा देता है। तो फिर तानाशाही लोकतंत्र का क्या कहें? उस ज़माने में भी पुलिस ने सभी कानून व्यवस्था  को ताक पर रख कर मनमानी ढंग से आम लोगों को रोका, बंद किया, लाठी से मारा और गोली भी चलायी।

असंवैधानिक और गैर-कानूनी ढंग से देश की governance की परंपरा अंग्रेज शासन के बाद कुछ खास बदली नहीं, न ही उस ज़माने के कानून और शांति बनाये रखने के हथकंडे. Divide & Rule अग्रेंज हमें अच्छे से सिखा गए।

यही परंपरा आज भी चल रही है. हर पांच वर्षों में चुनाव हो जाते हैं, औसतन 60% लोग वोट डालते हैं, और 30% लोगों के वोट से सरकारें बन जाती हैं। हम सब इस परम्परा को लोकतंत्र मान कर उपने जीवन में व्यस्त हो जाते हैं. इन तीस वर्षों में, चुने हुए प्रतिनिधियों में क्रिमिनल्स की संख्या बढ़ कर एक तिहाई से ज्यादा हो गयी है। चुनावी लोकतंत्र अब देश के गवर्नेंस की राजनितिक पद्धति नहीं, बल्कि धंधा बन गया है।

पर तानाशाही मानसिकता कम नहीं हुई, संभवतः बढ़ी ही गयी।

1976 में तुर्कमान गेट पर पुलिस की फायरिंग की खबर कुछ लोगों की आपसी बात-चीत से लग गयी थी। उस ज़माने में अखबार बंद कर दिए गए थे, और टेलीफोन, इन्टरनेट इत्यादि उलब्ध ही नहीं थे। बस लोगों के बीच बात-चीत के कनेक्शन गहन थे।

2019 में भी वही सरकारी तंत्र और पुलिस का रवैय्या हम सब के सामने है. इस बार दिल्ली गेट पर 20 तारीख को पुलिस दमन की खबर इन्टरनेट के बंद हो जाने से इंसानी कनेक्शन से ही मिली, क्योंकि मीडिया तो मूक दर्शक हो गया है।

स्टूडेंट्स को आन्दोलन करने से रोका जा रहा है। आपसी वैमनस्य को भड़काने वाले भाषण और जानकारी दी जा रही है. इन्टरनेट और मोबाइल सेवा को बार-बार बंद करके सरकारी मनमानी का अनूठा, पर पुराना, नमूना पेश हो रहा है। शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में योजना-बद्ध  तरीके से उपद्रव, आगजनी और तोडफोड़ आज भी कराई जा रही है। और आपस में दो गुटों में हिंसा भड़काने के बाद गैर-क़ानूनी ढंग से लोगो को गिरफ्तार किया जाता है और पीटा जाता है।

पर फिर भी स्टूडेंट्स और युवा पीढ़ी भय और असमानता  के इस माहोल में शांति-पूर्ण ढंग से अपनी आवाज़ उठा रहे ही हैं।

जब तक लोकतंत्र के ढांचे और नेतृत्व से तानाशाही मानसिकता नहीं निकलेगी, तब तक चुनी हुई सरकारें अपने ही नागरिकों को चुप कराती रहेंगी।

इस तानाशाही मानसिकता के चलते ही तमाम अन्दोअनों के बाद किये गए वायदे अधूरे रह गए हैं. न आदिवासियों को उनकी ज़मीं और जंगल पर हक मिला; न ही ‘निर्भय’ के बाद महिलायों को सुरक्षा; न ही नागरिकों को दिन-रात होने वाले भ्रष्टाचार से छुटकारा। आन्दोलन उसी मुद्दे तक सीमित रह गए और समाज से तानशाही मानसिकता दूर न हो पाई।

इसी मानसिकता के चलते एक बाप अपनी लड़की को घर से बाहर नहीं जाने देता; एक टीचर अपने विद्यार्थी को चुप रह कर परीक्षा तक ही सीमित पढाई करने का दबाव डालता है; भिन्न रूप-रंग और कपड़ो के लोगों से हमें दूरी बनाना सिखाया जाता है; अपनी जाति और धर्म में शादी करने पर मजबूर किया जाता है; ऊपर वाला अपने से हर नीचे वाले को दबाता है, और अपने से ऊपर वाले से दब कर चुप रह जाता है।

रोजमर्रा के जीवन में इस तानाशाही मानसिकता को भंग कर के ही रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में लोकतंत्र लाना होगा. तभी लोकतान्त्रिक governance की व्यवस्था और security सही मायने में इस देश को लोकतान्त्रिक बनाएगी।

स्टूडेंट्स और युवाओं का यह आन्दोलन क्या इस कड़ी का हिस्सा बन पायेगा?

डॉ राजेश टंडन   
24 दिसम्बर 2019

 

Photo Credit: Ankur Jyoti Dewri - Own work, CC BY-SA 4.0, Link

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